श्री विश्वकर्मा स्वरूप



सप्त ऋषियों द्वारा विश्वकर्मा जी की पूजा

ऋग्वेद के दशम् मण्डल के सूक्त 81 व 82 दोनों सूक्त विश्वकर्मा सूक्त है। इनमें प्रत्येक में सात-सात मंत्र है। इन सब मत्रों के ऋषि और देवता भुवनपुत्र विश्वकर्मा ही हैं। ये ही चौदह मत्रं यजुर्वेद अध्याय के 17वें में मत्रं 17 से 32 तक आते हैं, जिसमें से केवल दो मंत्र 24वां और 32वां अधिक महत्वपुर्ण है। प्रत्येक मागंलिक पर्व यज्ञ में गृह प्रवेश करते समय, किसी भी नवीन कार्य के शुभारम्भ पर, विवाह आदि सस्कांरो के समय इनका पाठ अवश्य करना चाहिए।


इतिहास साक्षी है कि विभिन्न अवसरों पर भी ऋषि मुनियों, देवताओं और महापुरूषों पर भी सकंट आया श्री विश्वकर्मा जी ने उनको नाना प्रकार के आयुध प्रदान किये और उऩ का सकंट निवारण किया और उन्होंने विश्व विश्वकर्मा जी की पूजा आराधना और स्तुति की। श्री कृष्णं एवं भीम सवांद में उल्लेख आया है कि महर्षि मरिच, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलड, ऋतु, वरिष्ठ, आदि सप्तऋषियोंने ब्राह्मणत्व प्राप्त करने के लिए विश्वकर्मा जी की प्रार्थना की जो इस प्रकार हैः


अस्माकम् दीयतां शीघ्रं भगवन् यज्ञ शीलताम्।....................कर्माणि तदा मयात्।


अर्थात हे प्रभु। अब आप कृपा कर हमें यज्ञशीलता प्रदान कीजिए। हे महाविभों। यज्ञ करना, यज्ञ कराना, वेद पढना कथा पढाना, दान देना और दान लेना आदि षट्कर्मों का अधिकार दीजिए । महर्षियों के ये शब्द सुनकर श्री विश्वकर्मा जी ने उनको वरदान दिया और षटकंर्माधिकार की आज्ञा दी।


यह वर प्राप्त करके सप्तर्षियों ने शिल्पधिपति देवाधिदेव विश्वकर्मा जी की मुक्त कंठ से स्तुति की जो इस प्रकार हैः "हे शिल्पाचार्य विश्वकर्मन् देव। हम आपके कृतज्ञ हैं। हम पर आपकी कृपा हो, हम आपको बारमबार प्रमाण करते है एवं तत्वज्ञानी शिल्पाचार्य मनु, मय, त्वष्टा, दैवेज्ञ, शिल्पी आपके पुत्रों को भी हम प्रमाण करतें है। इस संदर्भ में सप्तऋषि आगे कहते है- हे देव। आप की कृपा से हमें शुद्ध ब्राह्मणत्व प्राप्त हुआ है। अब हम अपने मार्ग पर जाते है ऐसा कहकर उन ऋषियों ने श्री विश्वकर्मा जी को बारम्बार प्रणाम किया, उनकी प्रदक्षिणा की इस प्रकार श्री विश्वकर्मा जी सप्तऋषियों के गुरू भी है।"


इन्द्र द्वारा विश्वकर्मा जी की पूजा ब्रह्मवैवर्त पुराण, कृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय 47 के राधा-कृष्ण संवाद में उल्लेख आता है कि देवाधिदेव इन्द्र ने भी कलाधिपति विश्वकर्मा जी की आराधना एंव स्तुति की जिसका विवरण इस प्रकार हैः "श्री कृष्ण कहते है कि, हे परम सुदंरी। जिससे सभी प्रकार के पापों का विनाश होता है ऐसे पुण्य वृतान्त को सुन। हे सुन्दरी। जब विश्व रूप की ब्रह्म हत्या से मुक्त होकर इन्द्र पुनः स्वर्ग में आया तो सब देवों को अत्यतं आनंद हुआ। इन्द्र अपनी पुरी में पूरे सौ वर्ष के बाद आये थे उनके सत्कारार्थ विश्वकर्मा जी ने अमरावती नामक पुरी का निर्माण किया था जो कि नौ-नौ प्रकार की मणियों और रत्नों से सुसज्जित थी। इस अत्यंत सुंदर नगरी को देखकर इन्द्र अति प्रसन्न हुए। उन्होंने विश्वकर्मा जी का आदर सत्कार किया, उनकी पूजा की, अराधना की एंव उनकी स्तुति की। इन्द्र ने कहा, हे विश्वकर्मा। मुझे आशीर्वाद दो कि मैं इस पुरी में वास कर सकूं।"


भगवान श्री राम् और श्री विश्वकर्मा जी

इसके अलावा इतिहास साक्षी है वाल्मीकि रामायण के लकां काडं, सर्ग 125 श्लोक 20 अनुसार भगवान राम ने भी विश्वकर्मा जी की अराधना एंव पूजा की। यह बात स्वंय श्री राम ने अपने मुख से कही, जिस समय लंका पर विजय प्राप्त करके महावीर आदि के साथ विमान में सीता सहित श्री राम अयोध्या आ रहें थें तो सीता से कहा किः "हे सीता, जब हम तेरे वियोग में व्याकुल होकर वन-वन घूम रहे थे तो समुद्र तट स्थान पर चातुर्मास किया था और विश्वकर्मा प्रभु की पूजा भी करते थे। उसी विश्वकर्मा की कृपा से हमें साम्रंगी प्राप्त हुई और, उसी की कृपा से यह सेतु हमने बांध कर लकां में प्रवेश किया और रावण का वध किया है।" यहां महाप्रभु विश्वकर्मा को ही महादेव कहा गया है। संत शिरोमणी तुलसी के रामचरितमानस मे भी श्री राम ने विश्वकर्मा पुत्रों नल और नील की मुक्त कंठ से प्रशंसा की और उनके प्रति अपना आभार प्रकट किया।


द्वापर युग में मंवादी पांचों पुत्रों के सहित विश्वकर्मा की महादेव और द्वारका वासी श्री कृष्ण ने इस प्रकार पूजा की। कलियुग में भी विश्वकर्मा वंशीयों देवऋषि अर्थात शिल्पी ब्राह्मणों की महाजन जनमेजय ने अपनी यज्ञ में यथोक्त पूजा की है। सारांश यह कि शिल्पी ब्राह्मण सर्वदा से ही सबके पूज्य रहे है। अतः यह पूर्ण रूपेण स्पष्ट है कि देवाधिदेव विश्वकर्मा जी समस्त शास्त्रों के ज्ञान, वेद वेदांग में परंपरागत, तप और स्वाध्याय के प्रेमी, इंद्रियों को जीते हुए, क्षमाशील ब्राह्मण कुमार थे। स्वंय भगवान होते हुए भी वे भगवान का अराधना करतें थे। वे सर्वव्यापी, समर्थ और सर्व शक्तिमान थे। संसार की प्रत्येक वस्तु पर उनका पूर्ण अधिकार था। परतुं किसी भी वस्तु में उनकी आसक्ति, ममता, स्पृहा और कामना नही थी। समय-समय पर उन्होंने सभी देवी देवताओं की सहायता की, अमोध, अस्त्र, शस्त्र, आयुव प्रदान किये, ऐश्वैर्य के साधन उपलब्ध कराए, संसार का लालन-पालन किया। महान, शूरवीर,धीर, दयालु उदार, त्यागशील, निष्पाप, चतुर, द्दढ प्रतिज्ञ, सत्य प्रिय, बुद्धिमान विद्वान, जितेन्द्रीय और ज्ञानी थे। देवता, गन्धर्व, राक्षस, यक्ष, मनुष्य औऱ नागों में कोई भी ऐसा नहीं जो उनकी कला का सामना कर सकें। बल, वीर्य, तेज, शीघ्रता, लघुडस्तता, विशाद-हीनता और धैर्य ये सारे गुण सिवा विश्वकर्मा जी के और किसी में विद्वमान नही थे।


विश्वकर्मा संतति

जिस प्रकार विश्वकर्मा भगवान के अस्तित्व, समय, काल, जन्म, शिक्षा आदि विषयों को लेखकों ने जटिल एवं अस्पष्ट बना दिया है, ऐसे ही विश्वकर्मा जी की संतान के सबंधों के सबंन्ध में विद्वानों के अलग-अलग मत है। विश्वकर्मा जी की संतान के सबंध में जिन प्रश्नो को जानने की जिज्ञासा साधारण व्यक्ति के मन में उत्पन्न होती है। वे कुछ इस प्रकार है, जैसे विश्वकर्मा के कितनें पुत्र थे? उनकी शिक्षा कैसे और कहां हुई? उन्होनें जीवन में क्या-क्या उपलब्धियाँ प्राप्त की? उनके शादी विवाह कौन-कौन से परिवार में हुए? समाज में उनकी क्या प्रतिष्ठा रही होगी? वे क्या-क्या काम करतें थें? आदि बहुत से प्रश्न है, जिनकीबाबत आज का प्रबुद्ध व्याति जानकारी प्राप्त करना चाहेगा। आज के युग में कोई भी पढे लिखा व्यक्ति किसी के कुल और जाति की जानकारी बाद में चाहता है। पहले इस बात को जानना चाहेगा कि अमुक व्यक्ति ने संसार में आकर क्या प्राप्त किया और इस संसार को क्या दिया। अंतः भ्रमं पैदा करने वाले प्रश्नों को छोडं कर हम उपर्युक्त प्रश्नों की ओर अधिक ध्यान देगें।


स्कन्द पुराण में लिखा है किः "विश्वकर्मा जी के पांच पुत्र थे, जिनके नाम मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी तथा दैवेज्ञ थे। विश्वकर्मा जी के पांचों पुत्र सृष्टि के प्रवर्तक थे। विश्वकर्मा जी के उपर्युक्त पाचों पुत्रों का नीचे अलग-अलग विवरण दिया जा रहा है, विवाह आदि का उल्लेख करें। विश्वकर्मा जी के पाचों पुत्र पिता समान प्रत्येक क्षेत्र में पांरगत एवं प्रवीण थे। तप, त्याग, तपस्या के कारण ही इनको महर्षि की उपाधि प्राप्त थी। महाप्रभु विश्वकर्मा ने अपने सद्योत्जातादि पंच मुखों से मनु आदि पांच देवों को उत्पन्न किया। इनके पांच पुत्र थे मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और दैवेज्ञ। दैवेज्ञ को विश्वज्ञ भी कहते है। क्रमशः ये सानग, सनातन, अहभूत, प्रयत्न और सुपर्ण के नाम से भी जाने जाते है।" जिनका विवरण कुछ इस प्रकार है।

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