आजादी के पहले अंग्रेजी हुकुमत में हिंदू त्योहारों पर पाबंदी लगा दिया गया था। कारण यह था कि, उस समय के भूमिगत क्रांतिकारी त्योहारों में आये हुये भीड का फायदा लेकर अंग्रेजों के खिलाफ क्रन्तिकारी मुहीम चलाते थे। उस जमाने मे विश्वकर्मा समाज (सुतार/लोहार) पर ज्यादा नजर होती थी। अपने पारम्परिक औज़ारों की पूजा करने की प्रथा को विस्तृत रूप से अंग्रेजी हुकुमत को समझाने पर विश्वकर्मा समाज को पूजा करने की अनुमति मिल गई। समकालीन विश्वकर्मा समाज को विश्वब्रह्म कहा जाता था और विश्वकर्मा समाज अपने सभी कार्यों का आरम्भ करने से पहले औज़ारों की विधिवत पूजा करते थे, यंहा तक की पौराहित्य भी करते थे।
दक्षिण भारत के मद्रास राज्य में चित्तूर जिले के सुतारपेरी (यंहा विश्वकर्मा समाज ९०% है) नामक गाँव में विश्वकर्मा समाज के घर शादी हो रही थी और शादी पौराहित्य विश्वकर्मा समाज के पुरोहित मार्क सहाचार्य करवा रहे थे। तभी गाँव के ब्राम्हण पंचानन कौन्डील्य ने शादी मंडप मे आकार पौराहित्य करणे से मना कर दिया। विश्वकर्मा समाज और ब्राम्हण समाज मे बड़ा झगड़ा हूआ और फिर दोनो पक्षों द्वारा केस मद्रास कोर्ट मे दाखील कर दिया गया। समाज की ओर से शरबांण्णा कदरगार गाँव - कन्हड, तहसील - उपड, जिला - निजामपुर एवं पांचाल भिमाचार्य गाँव - गढवाल, मद्रास ने चित्तुर जिला फैसलनामा कोर्ट में वाद क्र.२५४ दि.१० जुलाई ८१७ में पूजा अधिकार का दावा दाखिल किया। वेद/पुराण अनुसार विश्वकर्मा समाज को देववंशज साबित करने पर चित्तुर जिला अदालत हुकुमनामा (द्राविडी) असल नं.२०५ सन १८१८ को समाज को पुजा अधिकार मिला। लेकिन ब्राम्हण समाज ये मानने को तैयार नहीं था। फिर से केस चला सन १८२० को दोबारा फैसला समाज के हित में कायम रखा गया। ये दौर पुरे ६० साल तक चला। आखिर में जुन्नर सबआर्डीनेट जज कोर्ट मु.नं.१५५३ दि.३१ जनवरी १८७६ पुणे असि.कोर्ट अपील नं.४३ अनुसार दिनांक १८ जुलाई १८७६ को मद्रास सुबा चित्तुर जिला कोर्ट में वाद दाखील कर दिया। इस बार वेद/पुराण के अनुसार तथा हिंदूधर्म पिठाधिश आर्ध्य शंकराचार्य (विश्वकर्मा वंशिय त्वष्टा कुलीन) के हिंदु धर्मशास्त्र के आधार पर चित्तुर जिला फैसलनामा कोर्ट के ब्रिटिश जज जस्टिन फ्यारेन साहेब ने मद्रास नामदास हायकोर्ट ठराव १८८५ कलेंडर नं.७८ पृष्ठ नं.१५२ अनुसार अंतिम फैसला तथा प्रथम प्रति दि.१६ सितंबर १८८५ को शरबांण्णा कदरगार को सुपुर्द कर दी गयी। मूल और अंतिम प्रति पांचाळ भिमाचार्य जी को सुपुर्द कर दिया गया।
ब्रिटिश कोर्ट पद्धतीनुसार ये फैसला १६ सितंबर को शाम ७ बजे के बाद रात को आया और लोगों ने इस फैसले की ख़ुशी में उत्सव को मनाने का फैसला किया और उसके लिए सुबह होने तक का इंतज़ार किया और अगले दिन १७ सितम्बर के सूर्योदय की पहली किरण के साथ सभी जगह उत्सव मनाया जाना आरम्भ हो गया और लोगों ने अपने घरों को और औजारों को पारम्परिक तरीके से पूजा की। चूँकि इस पूजा को करने वाले प्रथम विश्वकर्मा वंशीय थे, इसी लिए इस पूजा का नाम धीरे धीरे विश्वकर्मा पूजा पड़ गया और यह विश्वकर्मा पूजा धीरे धीरे दक्षिण भारत से निकल कर पुरे भारतवर्ष मे मनाया जाने लगा।
ब्रम्हश्री पंडित नारायण रावजी शास्त्री एवं बालशास्त्री रावजी द्वारा रचित लिखित "विश्वब्रम्हकुलोत्साह" पुस्तक से लिया गया है। आज की स्थिति कुछ ऐसी है कि, ऑनलाइन तथ्य विहीन जानकारी भी गलत तरीके अंकित कर दी गयी है जिससे समाज भ्रम की स्थिति में पड़ चूका है जबकि १७ सितम्बर विश्वकर्मा पूजा का मूल तथ्य यह है।
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