श्री विश्वकर्मा सुयशा यह विश्व करत नित गान ।
ईश वास्तु अरू शिल्प कं शीघ्र बिल सव झान ।।
ब्रह्मा प्यास कीन्ह सुविचारा। जरा रचना अति विषम अपारा ।।1।।
नारायण तब दीन्ह सहारा । अदभुत ग्रह गति प्रभु विस्तारा ।।2।।
विश्वकर्मा नाम अति पावना सुभवन सकल रचे मल भावन ।।3।।
रचि ‘पूरबी अरू पावन धामा। डिंमगिरो मेरू विक्य शुन नामा ।।4।।
चौदह डायन द्वि भुमि विभागा । सत्यलोक हिय शुचि अनुरागा ।।5।।
विवि नुवन प्रभु जग से कीन्हा । कामधेनु सम शुख्या दीन्हा ।।6।।
विश्वकर्मा हि प्रकूति नियन्ता । क्षिति जल पावक पवन अनन्तर ।।7।।
संधि तत्य प्रयु जज्जात् विधाता । अखिल चराचा जीवन दस्ता ।।8।।
वेद पुराण नित करत प्रशंसा । स्वय विराजत धवलित हसा ।।9।।
राजा पृथु आराधन कीन्हा । जन मंगल यल पावन दीन्हा ।।10।।
सुर पुनि आरत गिरा पुकारा । सुरद्रोही दानव संहारा ।।11।।
नारायणा सत् वित आनन्दा । उपजाये जवा फल अरू कन्दा ।।12।।
आय’ सुंगद्वि सगर भंयकर । भूतल घायल शिव प्रलयंकर ।।13।।
देखि दशा शिव राय प्रनु जाया । एहि विवि राकर मान बढाया ।।14।।
वास्तुदेव रसा वदि निवासा । योज्जा ज्ञान रति परम प्रकासा ।।15।।
श्रद्धा भाव इलाचन नाचे । इला विनय सुनि भव उपकारी ।।16।।
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